क्या BJP कर रही है लालकृष्ण अडवाणी के फैसले का विरोध, ECI नियुक्ति पैनल से CJI को हटाया
Poll Panel Selection: केंद्र सरकार की तरफ से 10 अगस्त को संसद में एक बिल पेश किया गया. जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर हाई पावर कमेटी का प्रावधान है. परंतु खास बात ये है कि इस कमेटी से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्यन्यायाधीश को बाहर रखा गया है. बिल के मुताबिक कमेटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, नेता विपक्ष और प्रधानमंत्री की तरफ से नामित एक कैबिनेट मंत्री शामिल होंगे. इससे पहले इस कमेटी में मुख्यन्यायाधीश भी शामिल थे, इसी वजह से ये मामला सुर्खियों में है. वहीं कुछ लोग भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की उस चिट्ठी को याद कर रहे हैं, जिसमें ऐसी नियुक्तियों में पक्षपात से बचने के लिए मुख्यन्यायाधीश को कमेटी में शामिल करने की बात कही गई थी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
गौरतलब है की इस मामले को लेकर तकरार इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि इससे सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले पर असर पड़ता है. जिसमें उसने कहा था कि प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी तीन सदस्यीय चुनाव आयोग का चयन करेगी. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जब तक पार्लियामेंट इन नियुक्तियों को लेकर कोई कानून पारित नहीं करता है, तब तक यही व्यवस्था लागू रहेगी. दरअसल चुनाव आयोग को लेकर पिछले कुछ वर्षों में कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं, जिनमें सबसे गंभीर मुद्दा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को बताया गया है।
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नियुक्ति प्रक्रिया पर भाजपा ने बदला रुख
भाजपा ने भले ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से मुख्यन्यायाधीश को बाहर रखने का फैसला किया हो, परंतु कुछ वर्षों पहले ऐसा नहीं था. जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तो खुद उनकी तरफ से मुख्यन्यायाधीश को पैनल में रखने की बात कही गई थी. इसे लेकर भाजपा संसदीय दल के तत्कालीन नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 2 जून 2012 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को एक चिट्ठी लिखी थी. जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम के गठन की बात कही गई, साथ ही कहा गया कि चीफ जस्टिस भी इस पैनल में शामिल होने चाहिए।
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आडवाणी ने क्या कहा था
चुनाव आयोग के उच्च अधिकारियों की नियुक्ति का जिक्र करते हुए तब आडवाणी ने लिखा था कि मौजूदा प्रणाली जिसके तहत चुनाव आयोग के सदस्यों को राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं. उसमें सिर्फ प्रधानमंत्री की सलाह ली जाती है. जिससे लोगों में विश्वास पैदा नहीं होता है. ऐसे जरूरी फैसलों को सत्ताधारी पार्टी के विशेष अधिकार के तौर पर रखने से चयन प्रक्रिया में हेरफेर और पक्षपात की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. इसीलिए नियुक्ति प्रक्रिया में संशोधन करने का वक्त आ गया है।
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